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अस्थिर अशांत सा इस बियावान में
लहरों सदृश हिचकोले खाता
बेचैन मन,
घृणा, तृष्णा, अंधकार, हाहाकार...
अब तो इस बीहड़ से
भाग उठने की लिप्सा मात्र है।
धरा पर बिताए इन कुछेक वर्षों में ही
लगता है जैसे -
सत्य की पराकाष्ठा समझ आ गई हो...
संस्कृति एवँ परम्परा का झूठा दम्भ,
मखौल बनते मानवता एवँ निष्ठा
सरीखे किताबी शब्द...
एक दूसरे को ही नोच
खाने को आतुर
गिद्ध की तरह डटे लोग।
निरर्थक से किसी लक्ष्य को
प्राप्त करने की होड़ में
कलपता अंतर्मन...
एक पारदर्शी छवि प्राप्त करने की आकांक्षा
परन्तु फिर भी बाकि है।
कभी तो प्राप्त होगी वह
अलौकिक जान पड़ती दूरस्थ आकृति...
कभी तो मिलेगी वह विचित्र अनुभूति...
इसी पागलपन के मध्य
शायद कुछ वर्ष और व्यतीत कर लूँ!
3 comments:
abe ye kavita hai ki ..............ki kahani hai ki kavita ki kahani hai.....kya hai ye??????????????
Its called meandering!!
Jo samajh mein aaye to phir kya ... !
Waise beta anonymous.. teri to..
hi there !
A nice piece buddy ..... what's happening ? I mean ne spl reason to feel so troubled ? Agar hai toh batao.... u wont be left wanting ..... I assure u !!
chandra here
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