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सामने बैठी तुम तो लगा मानो
संसार इतने में ही सिमट सा गया हो
इस बार भी "पहली" मुलाकात के लिए
हर बार की तरह समय थम सा गया हो
पलकें उठीं तो लगा जैसे
संसार में अब भी काफ़ी कुछ अच्छा सा है
पलकें झुकीं तो एहसास हुआ
मेरा प्यार सचमुच सच्चा सा है
मुस्कुराई तुम तो संतोष हुआ
नाममात्र ही सही, थोड़ा प्यार तो तुम्हें भी है
शरमाते चेहरे की लालिमा से आभास हुआ
तुम्हारे हृदय के एक छोटे कोने पर अधिकार मुझे भी है
मेज़ पर अंजाने में ही तुम्हारा हाथ छुआ तो लगा
थोड़ा ही सही, मेरे जीवन को आज भी अवलंबित करती हो
खत्म न हो रही बातों से लगा तुम मुझमें
आज भी उत्साह के कुछ शब्द अंकित करती हो
वापस जाने का वक़्त हुआ तो लगा जैसे
उन कुछ क्षणों में कैद मेरा संसार हुआ
थोड़ी देर रुक जाने को जब कहा तुमने
तो मानो हृदय पर ही प्रहार हुआ
किस गति से निकले थे वो कुछेक क्षण
अभी तो तुम्हें बस देख भर पाया था
हमारी पिछली उस मुलाकात की यादों का
सिलसिला आज फिर ख्वाबों में आया था
Friday, November 23, 2007
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3 comments:
I again ask who is the inspiration.... who who who????
Why is it always necessary that a 'creator' and 'creation' be sidelined to give way for the 'inspiration' - when the latter might not even be tangible!!
Poems are successful if a reader can identify himself with it. I would be immensely satisfied if you could even remotely identify your evening 8O'Clock rendezvous in this? ;)
A creator's worth lies in his creations.... but, that doesnt mean you sideline the creator.... it wont be fair.... i was plain curious dear.. nothing else....
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