Sunday, March 16, 2008

Nusrat Saahab

Revisited the maestro after a long gap with "Ye jo halka halka suroor hai". There's this strange thing about music and literature - whenever you re-visit them, there's always something new you'll notice; in effect, they never go old! This was the surprise today:

साक़ी की हर निगाह पे बलखा के पी गया
लहरों से खेलता हुआ लहरा के पी गया
रहमत-ए-तमाम मेरी हर ख़ता मुआफ़
मैं इन्तहाँ-ए-शौक़ से घबरा के पी गया

पीता बग़ैर इज़्न ये कब थी मेरी मज़ाल
दर पर्दा चश्म-ए-यार की शह पा के पी गया
समझाने वाले सब मुझे समझा के रह गए
लेकिन मैं एक-एक को समझा के पी गया

पास रहता है दूर रहता है, कोइ दिल में ज़ुरूर रहता है
जब से देखा है उनकी आँखों को, हल्का हल्का सुरूर रहता है
ऐसे रहते हैं वो मेरे दिल में, जैसे ज़ुल्मत में नूर रहता है
अब आदम का ये हाल हर वक़्त, मस्त रहता है चूर रहता है

ये जो हल्का हल्का सुरूर है...


Garnished the mood with "Hai kahaan ka iraadaa" and "Pilaao Saqi"; and topped everything up with "Wo hataa rahe hain parda". One nicely spent midnight, eh? :)



1 comment:

Abhishek said...

certainly reminded me of our Emerald days... esp 3rd year elex days when i had very few friends....