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Wednesday, November 18, 2009

काश ये खिड़की बस थोड़ी और खुल पाती


वो रौशनदान जिससे बाहरी बरसात से छनकर
आता उजाला छुपकर झाँक रहा है
वो शीशा जिसे भिगोकर अलसाया
भूरा बादल बस ऐसे ही ताक रहा है
काश बस थोड़ा और बड़ा होता

वो ड्योढ़ी जिसमें पहाड़ों से आई
गीली हवा घूमकर शोर कर रही है
वो दरवाज़े की दरार जिससे आती बूँदें
जमी धूल को एक ओर कर रही हैं
काश बस थोड़ी और बड़ी होती

वो खिड़की जो अपनी चौखट बार बार
चूमकर बयार का होना जता रही है
वो अटारी जिसपर बने घोसले के तिनकों को
पानी की फ़ुहार बस छू कर बढ़ी जा रही है
काश बस थोड़ी और बड़ी होती

आत्मविश्वास की वो पूँजी जो मशीनों के
कलपुर्ज़ों के बीच से कभी कभी आवाज़ लगाती है
वो इच्छाशक्ति जो अब भी दरवाज़े के उस पार
और खिड़कियों के पीछे से अचानक सर उठाती है
काश बस थोड़ी और बड़ी होती




Monday, May 05, 2008

बेशर्म लौ

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मोमबत्ती की रौशनी से नहायी खाने की मेज़ पर
तुम्हारे होने भर से सबकुछ जीवन्त सा था
धड़कनों की टाप बढ़ाता रात का वो किस्सा
कुछेक क्षणों में सिमटते हुए अनन्त सा था

बाती छोड़ती हुई सी मोमबत्ती की बेशर्म लौ
तुम्हारी आँखों में ही टिमटिमाती थी
गालों पर बस हल्की सी लालिमा जताने को
रौशनी स्वयँ सकुचाती थी

पानी की खुशकिस्मत सी वो पतली परत
तुम्हारे होठों पर ही ठहर जाती थी
बेशर्म लौ इठलाती सी रहती उनपर
बाती जल-जल कर बस पछताती थी

कानों में मचलते हुये दो छोटे झुमके
अपनी अनवरत सी तड़प की कहानी बतलाते थे
बीच-बीच में छिटकती बेशर्म लौ से लड़ने को
निरीह से इधर-उधर कसमसाते थे

शीशे के गिलास में छलकता सजीव सा पानी
बेशर्म लौ की लालिमा में शर्माता था
छोटे घूँटों के बहाने होठों से लगकर शीशा
हर बार बस चकनाचूर हो कर रह जाता था

शरारती आँखों पर सवार दो काली भौँहें ही
बला सी तनकर बेशर्म लौ को ललकार पाईं
सब कुछ देख मुस्कुराती स्पष्ट सी तुम्हारी रूपरेखा
जाने कब हृदय को किस नगर छोड़ आईं!




Saturday, February 02, 2008

कब आओगे तुम

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आसमाँ का नीला रँग उतर सा चुका है
हर वो बादल गरजकर थक सा चुका है
रातों की चाँदनी स्याह हो चुकी है
ठण्डी हृदय की हर आह हो चुकी है

रँगों का वो भेदभाव नष्ट सा हुआ है
अवसादित श्याम रँग स्पष्ट सा हुआ है
चीत्कारता हृदय अब परास्त सा हुआ है
कब आओगे तुम, जीवन निरास्त सा हुआ है

तुम्हारा संदेश पढ़ने को आँखें पथरा चुकी हैं
एक स्पर्श भर को उँगलियाँ थर्रा चुकी हैं
सूखे होठों पर विरह बरस सी रही है
गले लगाने को बाँहें तरस सी रही हैं

हर वो छोटी बात बताने को व्याकुल सा मन है
तुम बिन हर सफ़लता इक निरर्थक सा क्षण है
अनायास ही ध्वनि तुम्हारी सुनी हो, लगता हरदम है
कब आओगे तुम, अब तो मृतप्राय संयम है

तुम भी कदाचित होगी थोड़ी तो व्यथित
नहीं, ये सिर्फ़ हृदय के विचार नहीं कल्पित
याद है मुझे, थोड़ा सा प्रेम तो तुमने भी किया है
प्रतीत न करवाओ ये सिर्फ़ मेरी मृगतृष्णा है

शायद आजीवन तुमसे फिर मुलाकात न हो
अमूर्त से मेरे प्रेम पर भले तुम्हारा हाथ न हो
सच कहूँ, मैं सजीव नहीं जब तुम साथ न हो
कब आओगे तुम, तब तक कहीं सब समाप्त न हो




Friday, November 23, 2007

पिछली मुलाकात

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सामने बैठी तुम तो लगा मानो
संसार इतने में ही सिमट सा गया हो
इस बार भी "पहली" मुलाकात के लिए
हर बार की तरह समय थम सा गया हो

पलकें उठीं तो लगा जैसे
संसार में अब भी काफ़ी कुछ अच्छा सा है
पलकें झुकीं तो एहसास हुआ
मेरा प्यार सचमुच सच्चा सा है

मुस्कुराई तुम तो संतोष हुआ
नाममात्र ही सही, थोड़ा प्यार तो तुम्हें भी है
शरमाते चेहरे की लालिमा से आभास हुआ
तुम्हारे हृदय के एक छोटे कोने पर अधिकार मुझे भी है

मेज़ पर अंजाने में ही तुम्हारा हाथ छुआ तो लगा
थोड़ा ही सही, मेरे जीवन को आज भी अवलंबित करती हो
खत्म न हो रही बातों से लगा तुम मुझमें
आज भी उत्साह के कुछ शब्द अंकित करती हो

वापस जाने का वक़्त हुआ तो लगा जैसे
उन कुछ क्षणों में कैद मेरा संसार हुआ
थोड़ी देर रुक जाने को जब कहा तुमने
तो मानो हृदय पर ही प्रहार हुआ

किस गति से निकले थे वो कुछेक क्षण
अभी तो तुम्हें बस देख भर पाया था
हमारी पिछली उस मुलाकात की यादों का
सिलसिला आज फिर ख्वाबों में आया था




Sunday, October 07, 2007

दिवास्वप्न

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कल स्वप्न में तुम्हें देखा था
पानी पर फिसलते शिकारे में तुम्हारी मादकता का एहसास था
झील की सतह सहलाते तुम्हारे बालों से भँवर सा आभास था
तुम्हारे चेहरे पर तितली की टिप्पियों सा मधुर हास था
तुम्हारी आँखों की गहराईयों में परावर्तित सारा आकाश था

कल स्वप्न में तुम्हें देखा था
पानी में भिगोई तुम्हारी उँगलियों में भीनी सी छुअन थी
किनारे की डालियों में तुम्हारे चेहरे को छू जाने की तड़पन थी
तुम्हारी हथेली पर आने को कमल की पत्ती पर की ओस व्याकुल थी
बादलों के बीच से तुम्हारी झलक पाने को सूरज की किरण आकुल थी

कल स्वप्न में तुम्हें देखा था
तुम्हें स्पर्श करती उस पार से आती बयार मेरी ईर्ष्या बढ़ाती थी
पानी से छलकी दो बूँदें तुम्हारे होठों पर बैठ मुझे चिढ़ाती थीं
तुम्हारी उँगलियों से खेलती धार मेरी निर्बलता का एहसास दिलाती थी
तुम्हारे बालों से उलझती कुछ शैवालें मेरा परिहास उड़ाती थीं

कल स्वप्न में तुम्हें देखा था
हृदय के दूरस्थ कोने में छुपे उद्गारों को हवा देता स्वप्न
एकांत जीवन की निरर्थकता जताकर मुझे झकझोरता स्वप्न
खुली आँखों में तुम्हारी मृगतृष्णा समान मँडराता स्वप्न
असत्य, व्यर्थ, मूर्खतापूर्ण, क्रूर "प्यारा" सा स्वप्न...





Saturday, August 18, 2007

तुम

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व्यस्त जीवन के कुछेक बेचैन पलों में जब
तुम्हारी यादों की क़सक होती है
जड़-चेतन हर तत्व में हर ओर
सिर्फ़ तुम्हारी झलक होती है

इन अनवरत बारिशों में
तुम्हारे नटखटपन की मिलावट है
इन विस्तृत घाटियों के खालीपन में
तुम्हारी उत्कटता की आहट है

इन घुमावदार सड़कों के उस पार अब भी
तुम्हारी परछाईयाँ अठखेली करती हैं
उन पर्वतों में डूबती-उतराती घटाएं
यादों की आँख मिचौली करती हैं

रात्रि के तीसरे पहर वाले सन्नाटे में
तुम्हारी मोहक-अविरल बातें गूँजती हैं
रौशनी के नीचे असँख्य कीट-पतँगों की भन्नाहट में
तुम्हारी उच्छृन्खलता खलती है

माना आज तुम साथ न सही
पर इक सुखद अनुभूति तो है
वो चंचल मुस्कान आस-पास न सही
भरोसा उन यादों के प्रति तो है

जीवन से कुछ प्राप्त हुआ हो न हो
पर स्वयं पर इतना अभिमान तो है
तुम्हारी चेतना में क्षण भर को ही सही
आज भी आता मेरा नाम तो है!




Friday, August 10, 2007

आओ मिल कर बैठें

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कई वर्षों की ख्वाहिश है
तमाम ज़िन्दगी यूँ ही बिताने की
कुछ गिले-शिकवे मिटाने की
कुछ पुरानी यादें सजाने की

वो रंगीन किस्से, वो छोटी मुलाकातें
उन जामों का हल्का सुरूर, वो दिल की बातें
वो परिंदों सी आज़ादी, वो सुकूनी रातें
फिर साथ आने की, वो बाज़ियाँ बिछाने की

कुछ पुराने साथी, कुछ पुराने मंज़र
कुछ दिलफेंक नज़ारे, कुछ हसीन खंजर
कई आड़ी तिरछी राहें, कई अजीब सफ़र
हमाम में एक बार फिर, वही नज़्में गुनगुनाने की

कोशिश तुम्हारे ग़मों को फिर अपनाने की
एक ही थाली में फिर हर रोज़ खाने की
तुम्हारे दिल का वो कोना वापस पाने की
ख्वाहिश है, एक बार फिर दिल-से मुस्कुराने की

Inspired by Chandra's post.



Friday, June 01, 2007

काश


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काश मेरे पास बस थोड़ा कुछ होता...
एक कतरा आसमान का विस्तार
एक दोने भर नदी का बलखाना
एक थैली सागर की उठती लहर
एक मुठ्ठी पुरवईया का झोंका
एक साँस भर भीगी काली घटा
एक नज़र भर इँद्रधनुष का रँग
काश!

मैं ज़्यादा कुछ की लालसा नहीं रखता...
बस एक नग सरसराती पत्ती उस झाड़ की
एक दामन इठलाहट पेड़ की डाल की
एक चुटकी भर महक पहली बारिश से नम मिट्टी की
एक छुअन चुलबुली मचलती उस गिलहरी की
एक चुल्लू खुशबू बाग़ के सारे फूलों की
एक हथेली पसीना माली की मेहनत का
काश!

मैंने सीमित कर डाले हैं अपने ख़्वाब, चाहिये अगर...
तो बस एक हिस्सा ऊँचे पर्वत की हिम्मत का
एक चमकीली किरण ढलते सूरज की
एक आईना तालाब में बनती चाँद की परछाई
एक मीठी सिहरन रात को समन्दर किनारे की ठण्डी रेत की
एक चेतना ऊँचाई से गिरती झरने की इक बूँद की
एक थोड़ा बंजारापन उस रेगिस्तान का
काश!

मैंने अपने लिये तो कभी कुछ चाहा ही नहीं...
बस एक मुठ्ठी विवेक से भरा मस्तिष्क
एक झोली मिठास से भरी वाणी
एक पर्वत भर ऊँचा विश्वास
एक चींटी भर जितना धैर्य
एक सागर भर गहरे प्रेम से भरा हृदय
और एक सम्पूर्ण "आत्मा" से भरा शरीर
काश!

काश मेरे पास बस थोड़ा कुछ होता...



Monday, May 28, 2007

काल्पनिक


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कई वर्षों पुरानी ये छोटी सी कथा
एक छोटे बालक की बड़ी मनोव्यथा
जब पहली बार हृदय हुआ लाचार
लगा उसे, बस यही है "पहला प्यार"

बालक ही था, क्या जाने प्रेम की परिभाषा
हर दिन डूबता-उतराता, कभी आशा, कभी निराशा
तेरह वर्ष की उम्र में ही, जीवन लगने लगा इक स्वप्न
कारणों से अनभिज्ञ, बस बेचैन सा रहता मन

हाँ, माना वो भी कुछ कम न थी
इक कली, तब तलक किसी की हमदम न थी
उस प्यारी सी बच्ची का, ऐसा गज़ब का आकर्षण
बालक बेचारा, थम सा जाता हर क्षण

मूर्ख, अज्ञानी, सच से अनभिज्ञ, पूरा नादान
अरे प्रेम को समझ न पाए ज्ञानी-महान
अगर तेरह वर्षीय बालक को सचमुच प्रेम हो जाए
तब तो मानव-शुचिता पर ही प्रश्न लग जाए

प्रेम है वो अग्नि, वो शक्ति महान
जिसमें हृदय खोता नहीं, पाता है पहचान
बेसुध मन हो, फिर भी इक विचित्र अनुभूति
प्रेम ही धरा, प्रेम मानव, प्रेम स्वयँ प्रकृति

ख़ैर, दर्शनशास्त्र वाचन नहीं इस कविता का उद्देश्य
वापस चलें उस बालक के हृदय-प्रदेश
बालक था परेशान, विकट समस्या, न कोई निदान
कैसे हो भावनाओं की अभिव्यक्ति, मिले कोई समाधान

दो वर्ष बीते, तथाकथित प्रेम में आई थोड़ी तीव्रता
पर वही पुरानी कथा, दोनों की थी "बस मित्रता"!
बस कुछ दिन और, विद्यालय का होने आया समय समाप्त
बालक को लगता, हर दिन मानो हृदयाघात

बालक के कुछ अन्य मित्र, भाँप गए उसकी परिस्थिति
जो उससे हो न सकी, मित्रों ने कर डाली वो कृति
वो समझ न पाई ये सब, उम्र में थी वो भी नादान
तोड़ डाले हर बंधन, नष्ट की मित्रता की हर पहचान

जीवन में पहली बार, लगा हृदय पर घोर आघात
प्रेम नहीं, सिर्फ़ आकर्षण ने, छीना एक मित्र का साथ
स्वप्न तो भहराए, पर साथ हुआ एक अपराध-बोध
अपराध? अर्थात् न था प्रेम वह, साबित होता बिना शोध!

प्रेम नहीं, पुनः मित्रता पाने को, जुटाकर साधन सकल
बालक ने किया अथक प्रयास, रहा सर्वथा विफल
समय चक्र न रुका है कभी, बीते ऐसे ही वर्ष दस
बालक रमा अलग जीवन में, तुच्छ मानवों की यही बिसात बस!

अन्दर कहीं न कहीं परन्तु, व्याकुल हृदय था कचोटता
तेईस वर्षों का हुआ बालक, पर अब भी याद आती वह मित्रता
आज भी उसके वही सिद्धांत, रिश्तों को समझना पूँजी प्रधान
रहा न गया, दस वर्षों पर्यन्त, कर दिया दूरभाष हृदय थाम!

थोड़ी बहुत बातें, यूँ ही हालचाल, जैसे मिले हों अजनबी
समझना न सही, पर भूल न सकी इतने दिनों बाद भी?
मैंने ऐसा क्या किया गुनाह, बालक ही तो था नादान
दस वर्षों बाद ही सही, मित्रता का थोड़ा तो करते सम्मान!

हूँ अज्ञानी पर सुन लो, कहता हूँ इक अनमोल वचन
कल न तुम रहोगी, न मैं, बस इतने से सच को कहते जीवन
अगर कभी कम हो मलाल, लगे ज़रूरत किसी अपने की
बेहिचक याद करना, राह देखूँगा मित्र तुम्हारे लौटने की...




Friday, September 22, 2006

So near, and yet so far





Your eyes -
Those pair of dreams
Those glitters of life
Those depths defying oceans
Those exuberant blinks
Those fluttering lids
Those mischievous glances
Your eyes.

Your lips -
Those dry-crisp ashes
Those loquacious wet streams
Those impeccable petals
That infectious smile
Those longing watery pinks
Those immortalised springs
Your lips.

Your hairs -
Those clouds of hope
Those flowing rivers
Those moonless nights
Those "colourful" blacks
Those dense tousles
Those dangling inspirations
Your hairs.

Your face -
That serenity of heavens
That radiance of moon
That calmness of lakes
That beauty of roses
That incessant chatter
That shyness of leaves
Your face.

You-
That perfection of the Master
The defiance of times
The epitome of love
The 'falling' for many
The 'rising' for a few
Ah! You're the twinkling star,
So near, and yet so far!




Saturday, April 15, 2006

Drenching in the rain





Rain rain where thou art
Bless the earth before it shatters apart

This unrepentant sun and this sultry sky
Gnawing my heart wherever I lie

My dry lips and my thirsty mind
And pains and agonies of all kind

My hands which could never learn to pray
And my heart which has only one thing to say

That its eternal hope sees that elusive light
That one speck among the existing plight

Move on where your dreams take you
Who says they don’t come true?

Treading forward on this thorny path
Whatever be the fury or the wrath

For, there awaits my dream, my soul
O rain! Drench me and make me ‘whole’.



Wednesday, June 01, 2005

Meandering through

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अस्थिर अशांत सा इस बियावान में
लहरों सदृश हिचकोले खाता
बेचैन मन,

घृणा, तृष्णा, अंधकार, हाहाकार...
अब तो इस बीहड़ से
भाग उठने की लिप्सा मात्र है।

धरा पर बिताए इन कुछेक वर्षों में ही
लगता है जैसे -
सत्य की पराकाष्ठा समझ आ गई हो...

संस्कृति एवँ परम्परा का झूठा दम्भ,
मखौल बनते मानवता एवँ निष्ठा
सरीखे किताबी शब्द...

एक दूसरे को ही नोच
खाने को आतुर
गिद्ध की तरह डटे लोग।

निरर्थक से किसी लक्ष्य को
प्राप्त करने की होड़ में
कलपता अंतर्मन...

एक पारदर्शी छवि प्राप्त करने की आकांक्षा
परन्तु फिर भी बाकि है।
कभी तो प्राप्त होगी वह
अलौकिक जान पड़ती दूरस्थ आकृति...

कभी तो मिलेगी वह विचित्र अनुभूति...
इसी पागलपन के मध्य
शायद कुछ वर्ष और व्यतीत कर लूँ!




Tuesday, April 05, 2005

Silver lining of the cloud

Definition of my life
starts from distress;
Sadness and agony
and pain and frustration...
Oh! the master,
If at all you're there,
give me that ray of hope!

Life comes a full circle
after these 20 years...
But has something changed?
Except this false happiness of youth...
Oh! the master,
If at all you're there,
give me that ray of hope!

Not even a semblance
of peace or satisfaction;
Not even a virtual
solace in alcohol...
Oh! the master,
If at all you're there,
give me that ray of hope!

The sun never sets
and the river never rests
and the trees never complaint...
Strive for yourself;
Oh! poor creature,
Look at the silver
lining of the cloud!

Awake, arise and
listen to your heart...
Says the master within
my sacred soul;
Oh! poor creature,
Look at the silver
lining of the cloud!



Tuesday, March 22, 2005

To you with love

I'm not perfect
rather far away from it;
I haven't done anything
till date...
no achievements to boast
no accolades to brag.
But does that mean
I can't love?

I look plain and dry;
with worst sartorial tastes.
I shirk from responsibilities...
I’m a freak.
But does that mean
I can’t love?

I am dumb and inept;
I never became a good guitarist
I never became a good artist
I never became a sportsman
But does that mean
I can’t love?

I'm austere...
I have conscience
and a golden heart
which skips a beat
everytime it remembers you;
My love! tell me,
why shouldn’t I love you?