Life is moving sinusoidal. And the amplitude is high. And the frequency too. Its not a great feeling to 'feel' too many different things in the same day, many a times within hours or minutes. Its been this hip-hop of moods for quite some time now, and I'm fed up of it. Whoever stole it, give back my calmness to me prick.
I'm overworking. Or might be busy for nothing. I've to study a lot, might be I'm just feeling that I've to, for the sake of it. Started swimming once again. Feels good - not as good as it used to be in Bangalore. Possibly because I was 'freer' then, at least mentally. Quizzes keep on cropping up here and there; they stopped mattering long ago, still keep on nagging me. Term papers and projects are due, well I'd learnt long back the technique of 'sticking to the deadline' - the pester at the back of mind however prevails. No one called up since many days, personal 'network' problems I guess. As a timepass, fortunes and unfortunes of the senior batch guys in the placement season keeps on coming up from here and there. Small small troubles forced me to take a few tablets and capsules too over the last week, aggravating the perpetual dizziness I've been slumbered into since the beginning of this term. No time to continue Doctor Zhivago from where I'd left it a month ago when I was traveling - I've almost forgotten the story and would have to re-read, if Hyderabad summers provide me some semblance of peace. Newspapers are a bore, would change the subscription to something else, just for a change; getting time to open that business magazine only in the class, yeah there are too many of classes as well. And finally, cribbing for no time perpetually. That friend is correct - Life is random, so am I.
Thursday, February 28, 2008
Saturday, February 02, 2008
कब आओगे तुम
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आसमाँ का नीला रँग उतर सा चुका है
हर वो बादल गरजकर थक सा चुका है
रातों की चाँदनी स्याह हो चुकी है
ठण्डी हृदय की हर आह हो चुकी है
रँगों का वो भेदभाव नष्ट सा हुआ है
अवसादित श्याम रँग स्पष्ट सा हुआ है
चीत्कारता हृदय अब परास्त सा हुआ है
कब आओगे तुम, जीवन निरास्त सा हुआ है
तुम्हारा संदेश पढ़ने को आँखें पथरा चुकी हैं
एक स्पर्श भर को उँगलियाँ थर्रा चुकी हैं
सूखे होठों पर विरह बरस सी रही है
गले लगाने को बाँहें तरस सी रही हैं
हर वो छोटी बात बताने को व्याकुल सा मन है
तुम बिन हर सफ़लता इक निरर्थक सा क्षण है
अनायास ही ध्वनि तुम्हारी सुनी हो, लगता हरदम है
कब आओगे तुम, अब तो मृतप्राय संयम है
तुम भी कदाचित होगी थोड़ी तो व्यथित
नहीं, ये सिर्फ़ हृदय के विचार नहीं कल्पित
याद है मुझे, थोड़ा सा प्रेम तो तुमने भी किया है
प्रतीत न करवाओ ये सिर्फ़ मेरी मृगतृष्णा है
शायद आजीवन तुमसे फिर मुलाकात न हो
अमूर्त से मेरे प्रेम पर भले तुम्हारा हाथ न हो
सच कहूँ, मैं सजीव नहीं जब तुम साथ न हो
कब आओगे तुम, तब तक कहीं सब समाप्त न हो
आसमाँ का नीला रँग उतर सा चुका है
हर वो बादल गरजकर थक सा चुका है
रातों की चाँदनी स्याह हो चुकी है
ठण्डी हृदय की हर आह हो चुकी है
रँगों का वो भेदभाव नष्ट सा हुआ है
अवसादित श्याम रँग स्पष्ट सा हुआ है
चीत्कारता हृदय अब परास्त सा हुआ है
कब आओगे तुम, जीवन निरास्त सा हुआ है
तुम्हारा संदेश पढ़ने को आँखें पथरा चुकी हैं
एक स्पर्श भर को उँगलियाँ थर्रा चुकी हैं
सूखे होठों पर विरह बरस सी रही है
गले लगाने को बाँहें तरस सी रही हैं
हर वो छोटी बात बताने को व्याकुल सा मन है
तुम बिन हर सफ़लता इक निरर्थक सा क्षण है
अनायास ही ध्वनि तुम्हारी सुनी हो, लगता हरदम है
कब आओगे तुम, अब तो मृतप्राय संयम है
तुम भी कदाचित होगी थोड़ी तो व्यथित
नहीं, ये सिर्फ़ हृदय के विचार नहीं कल्पित
याद है मुझे, थोड़ा सा प्रेम तो तुमने भी किया है
प्रतीत न करवाओ ये सिर्फ़ मेरी मृगतृष्णा है
शायद आजीवन तुमसे फिर मुलाकात न हो
अमूर्त से मेरे प्रेम पर भले तुम्हारा हाथ न हो
सच कहूँ, मैं सजीव नहीं जब तुम साथ न हो
कब आओगे तुम, तब तक कहीं सब समाप्त न हो
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