Wednesday, November 18, 2009

काश ये खिड़की बस थोड़ी और खुल पाती


वो रौशनदान जिससे बाहरी बरसात से छनकर
आता उजाला छुपकर झाँक रहा है
वो शीशा जिसे भिगोकर अलसाया
भूरा बादल बस ऐसे ही ताक रहा है
काश बस थोड़ा और बड़ा होता

वो ड्योढ़ी जिसमें पहाड़ों से आई
गीली हवा घूमकर शोर कर रही है
वो दरवाज़े की दरार जिससे आती बूँदें
जमी धूल को एक ओर कर रही हैं
काश बस थोड़ी और बड़ी होती

वो खिड़की जो अपनी चौखट बार बार
चूमकर बयार का होना जता रही है
वो अटारी जिसपर बने घोसले के तिनकों को
पानी की फ़ुहार बस छू कर बढ़ी जा रही है
काश बस थोड़ी और बड़ी होती

आत्मविश्वास की वो पूँजी जो मशीनों के
कलपुर्ज़ों के बीच से कभी कभी आवाज़ लगाती है
वो इच्छाशक्ति जो अब भी दरवाज़े के उस पार
और खिड़कियों के पीछे से अचानक सर उठाती है
काश बस थोड़ी और बड़ी होती