Sunday, July 17, 2016

एॅनाटोमी आॅफ़ ए हार्ट-ब्रेक

शीर्षक अँग्रेज़ी में लिखा क्यूँकि आगे कही जाने वाली बातें प्रेम के संदर्भ में हैं। और कहीं न कहीं प्रेम के संदर्भ में की गई साधारण बातें हिंदी में छोटी लगने लगती हैं। मिसाल के तौर पर “आई एॅम इन लव विथ यू” और “मुझे तुमसे प्रेम है” में आप अंग्रेज़ी ही चुनेंगे। हलाँकि मोहब्बत से जुड़ी हर तरह की बयानबाज़ी के लिए उर्दू से बेहतर कोई ज़ुबान नहीं, पर उर्दू में ‘डेप्थ’ थोड़ा ज़्यादा हो जाता है। जब प्रेम की पराकाष्ठा जतानी हो, तो उर्दू बड़े काम की चीज़ है – शोला और शबनम सरीखे प्यार को अदब से जता देने, या मैख़ाने में साक़ी के इनकार को तहज़ीब से बता देने में उर्दू ही चलेगी। पर इस वाले लेख में हमने थोड़ी मैच्योरिटी का दिखावा करने की कोशिश की है, और इस लिए शीर्षक में थोड़ा वैज्ञानिक दृष्टिकोण देना पड़ा जो सिर्फ़ अंग्रेज़ी में ही ठीक-ठाक निखर कर आ पाता है। फिर भी अगर जी न मानता हो, तो आप शीर्षक को “हृदय-भंजन का विश्लेषण” से बदल लें और दुबारा शुरू से पढ़ लें।

ख़ैर। हुआ यूँ कि इस बार हमारा दिल फिर से टूटा। मतलब जो कुछ बचा था वो। अब तो अमूमन इतनी बार टूट चुका है कि उपमाएँ कम पड़ने लगी हैं। तक़रीबन दस साल पहले फ़र्स्ट-टाईम टूटा था तो हमने चार-पाँच उपमाएँ एक ही बार में इस्तेमाल कर डाली थीं, जैसे खिलौना, शीशा, घड़ा, गुल्लक (क्यूँकि दिल के अमीर तो सारे ज़माने में बस एक हम ही हो पाए थे साहब!) इत्यादि। आगे के लिए ज़्यादा कुछ छोड़ा नहीं। उस ज़माने में नई-नई जवानी का पायदान था, तो दिल-विल टूटने के बाद फिलाॅसोफी झाड़ने में मज़ा भी आता था, जैसे जीवन का सारा असाध्य ज्ञान बस हमारे दिल टूटने भर से प्राप्त हो गया हो और ये हम सारी दुनिया के साथ बाँटने के लिए भी तैयार हैं; गौतम बुद्ध ने फालतू ही तपस्या वगैरह की।

उस ज़माने में तो ढंग से दिल लगाया भी नहीं जाता था – अभावग्रस्त काॅलेजों से निकलो, और जो पहली लड़की आॅफ़िस में बगल की सीट पर हो, डिकलेयर कर दो कि हमारा दिल तो जनाब बस अब इसी पर आ गया है। और यही सच्चा प्यार है, क्यूँकि ये पहला है, और क्यूँकि हिंदी सिनेमा ने बरसों से ये घुट्टी पिलाई है कि पहला वाला ही सच्चा है। इस टाईप के प्यार को पाने के लिए थोड़ी छिछोरापंथी, आॅर्कुट की दीवारों पर संदेशों की बमबारी, और सेल में मिलने वाली दो-चार टी-शर्टें काफ़ी थीं। मोटरसाईकिल की पिछली सीट पर बिठाकर आईस-क्रीम खिलाने और शाम को साथ में चाय-समोसा बाँट लेने भर से ये प्यार जितनी आसानी से परवान चढ़ जाता था, उतनी ही मुश्किल से छूटता था। तब के दोस्त, जिन्होंने अपनी तब तक की ज़िन्दगी में शायद कभी प्यार या कुछ भी वैसा न किया हो, कुछ पेग और सिगरेटों की बदौलत नई नई उपमाएँ देकर मामला सुलटा भी देते थे – जैसे धोखा, लड़कियाँ-ऐसी-ही-होती-हैं, हटाओ-बे, और-पीओगे?, इत्यादि।

बाद वाले प्यारों में हम, या शायद हमें सिर्फ़ ऐसा लगता हो, कि हम थोड़ा बहुत प्रैक्टिकल होने लगे – कि भई अब ऐसे ही बगल वाली से प्यार नहीं होने वाला, क्यूँकि जीवन का सारा ज्ञान तो हमें पहले ही मिल चुका है। उस ज़माने में बशीर बद्र की क़लम से नई नई पहचान हुई थी, और हमने बस सोच लिया था कि इस तरह का क़लाम तो सिर्फ़ हमपर ही सटीक बैठ सकता है – “हम भी दरिया हैं, हमें अपना हुनर मालूम है; जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे, रास्ता हो जाएगा।” पर ऐसा हुआ कभी नहीं। होता बस इतना था कि दिल तो हमेशा सबसे पास वाली पर आता था, पर आवाज़ नहीं निकल पाती थी। जीवन के इस वाले स्टेज पर सारा मामला आशना दिल को ढाँप कर की गई दोस्ती से शुरू होता था, और समझदारी इसमें लगती थी कि उसी दोस्ती को बचाने की ख़ातिर मोहब्बत का ज़िक्र न करना ही बेहतर रहेगा। आप कहेंगे कि भला ये भी कोई प्यार हुआ? अरे जनाब, उम्र के साथ थोड़ी समझदारी बढ़ी है, और हम आज भी यही कहेंगे कि बस यही तो होना चाहिए! सब कुछ राहुल और अन्नु की ‘आशिक़ी’ की तरह खुल्लम-खुल्ला हो जाए तो उसमें ‘क्लास’ नहीं रह जाता। बहरहाल, जीवन के इस पड़ाव तक हम थोड़े रचनात्मक, यानी क्रिएटिव हो चुके थे, और इसी सोच को आठ-दस गुना बढ़ा-चढ़ा कर ख़ुद ही सोच लेने पर ये लगा कि दिल टूटने पर कविताएँ लिख डाली जाएँ क्यूँकि जो कहा न गया हो, वो अगाध प्रेम है। और अगाध प्रेम की इस ऊर्जा को हम एक सकारात्मक दिशा दे सकते हैं, क्यूँकि अब तो हम सचमुच ज्ञानी हैं और इस बार तो पक्के से सारी क़ायनात को समझ चुके हैं। इस सकारात्मक सोच से कुछ खास फ़र्क तब भी नहीं पड़ा – दोस्त तब भी साथ रहे, और उनमें से ज़्यादातर लोग तब तक इन सब चीज़ों को किसी न किसी प्रकार से देख-समझ भी चुके थे (भले हमें तब भी ऐसा लगता था कि हमारी तरह किसी ने प्यार को नहीं समझा)। मामला सुलटाने के तरीके थोड़े अलग हो चले, और अब ‘हटाओ-बे’ की जगह सचमुच बातें होती थीं। कमरों में जलती सिगरेटें और दलीलें एक-कोने से दूसरे कोने का सफ़र अनगिनत बार तय करतीं, और ज्ञान के साथ-साथ गाने भी चलते – बहस चाहे कितनी भी उत्तेजना-पूर्ण चल रही हो, ‘सबका कटेगा राम’ सरीखे गाने जैसे ही धुएँ में घुलते, सर्वसम्मति हमेशा बन आती।

उम्र थोड़ी और बढ़ी। बाल थोड़े और झड़े, पर गंजापन अभी दूर था और उम्मीदें हमारी बकौल क़ायम। प्यार फिर से हो बैठा। इस बार लगा कि प्यार में परिपक्वता है, क्यूँकि अब हम बिलकुल मैच्योर हो चले हैं। ज़िन्दगी दफ़्तर की घड़ी से चलती तो थी, पर शामें और रातें हमेशा छोटी और गुलज़ार लगतीं। जितना ये आईस-क्रीम वाला प्यार था, उतना ही गहरा भी – बातें होती थीं तो महसूस यूँ होता था जैसे हम बातों को नहीं, सीधे दिल, दिमाग़, और दिल-ओ-दिमाग़ की मिली-जुली सोच को सुन और समझ पा रहे हों। झगड़े अब गुड-नाईट-मैसेज-क्यूँ-नहीं-भेजा सरीखी छोटी बातों पर नहीं, बल्कि गहन मसलों पर होते थे, जैसे ये काली वाली कुर्ती अच्छी क्यों नहीं है। उम्र के साथ दोस्त कम हो चले थे, सो इस वाले प्यार में लगता था दोस्ती ज़्यादा है, और ये पिछ्ले वाले स्टेज से अच्छा है क्यूँकि कितनी ख़ूबसूरती से हम दोनों की दोस्ती को प्यार में काढ़ दिया गया है। लिपटने से ज़्यादा सुकून साथ बैठने में था, आवाज़ से ज़्यादा सुकून ख़ामोशी में, और बाहर से ज़्यादा सुकून घर पर था। पिछले कुछ अरसे से पढ़ी जा रही शायरियाँ अब थोड़ा बहुत ग़ुमान भी दे गई थीं – “तेरा हुस्न सो रहा था, मेरी छेड़ ने जगाया; वो निगाह मैंने डाली, के सँवर गई जवानी।” बशीर बद्र की क़लम से की गई दोस्ती थोड़ी और गहरी हो चली थी, और "ये चिराग़ बेनज़र है, ये सितारा बेज़ुबाँ है; अभी तुझसे मिलता जुलता, कोई दूसरा कहाँ है" सरीखी पंक्तियों को हम अपने ऊपर सटीक बिठाने लगे थे। सब मिला-जुलाकर तय हुआ कि सच्चा वाला बस यही है – शायद पहले इसलिए नहीं हुआ क्यूँकि हर चीज़ वक़्त के साथ समझ आती है; इस बार आ गई है और इसकी बदौलत ज़िन्दगी गुज़ारी जा सकती है। और ज़िन्दगी गुज़ारने का मतलब वो लड़कपन वाला ‘सात जन्मों का साथ’ नहीं, पर गंभीरता से सोचा और समझा गया सिर्फ़ ये वाला जनम है जिसमें दो लोग फ़ाईनली बिलकुल ठोस तरीके से दुनिया के तौर-तरीकों को समझ-बूझ लेने के बाद जुड़े हैं। इससे बेहतर तालमेल हो ही नहीं सकता, क्यूँकि ये वाला सिर्फ़ दिल-ओ-दिमाग़ से गठित नहीं, बल्कि दोनों के कई वर्षों से संचित ज्ञान और अनुभव का निचोड़ है। इससे आगे अब ज्ञान की भी ज़रूरत नहीं, क्यूँकि अब हम इतने समझदार हैं कि ये जान गए हैं कि ज्ञान की कोई परिसीमा नहीं होती, पर जहाँ तक हम पहुँच पाए हैं वो इस वाली ज़िन्दगी को सही से निकाल लेने के लिए बहुत है।

तो इस तरह सब कुछ बिलकुल तर्कसंगत रहा। फिर मामला बिलकुल उसी तरफ़ गया जिस तरफ़ कोई भी प्यार में नहीं पड़ा आदमी आराम से अंदाज़ा लगा सकता है, और जिस तरफ़ कोई भी प्यार में पड़ा आदमी कतई नहीं सोच सकता। आँधी फिर से आई, पर लगा कि तूफ़ान की शक्ल में आई है। “मेरी बेज़ुबान आँखों से, गिरे हैं चंद क़तरे; वो समझ सकें तो आँसू, न समझ सकें तो पानी” टाईप लाईनें आँसू छलका जाने लगीं। लेकिन आँसू बहाने पर वो अल्हड़ जवानी वाला गुस्सा नहीं आया, बल्कि ये लगा कि चूँकि अब हम मैच्योर हो गए हैं, इसलिए अब हममें इतनी समझ आ गई है कि थोड़ा बहुत रो लेने से पौरुष कम नहीं हो जाता। मामला सुलटाना थोड़ा कठिन था क्यूँकि इस स्टेज वाली आँधी मुश्किल वाली होती है – एक तो तक़रीबन सारे दोस्त छिटक चुके होते हैं, और दूसरा आप ख़ुद अपनी परिपक्वता बचाने के चक्कर में ज़्यादा लोगों से तर्क-वितर्क नहीं करते। सबसे ज़्यादा घमासान दिल के अंदर ही होता है और मैच्योरिटी की बनिस्पत थोड़े बहुत आँसुओं के अलावा बहुत ज़्यादा कुछ बाहर नहीं छलकता। दो और दो को चार करने की बेइंतिहाँ कोशिश होती है, क्यूँकि इतिहास को तार्किक आधार पर समुचित ठहराए बिना डब्बे में डालना मुश्किल है। यही सब सोचकर हमने अपनी स्थिति के समीकरण को जोड़-घटाव करके दोनों तरफ़ बराबर करने का निर्णय लिया। पिछले दस वर्षों का धनाढ्य अनुभव, दोस्तों की फ़ब्तियों और क़िस्सों के आँकड़े, और स्वयँ-संचित अमूल्य ज्ञान को मिलाकर हमें सब कुछ इस बार स्फटिक की तरह बिलकुल स्पष्ट हो गया और भूत-भविष्य-वर्तमान की सारी हो चुकी, और होने वाली घटनाओं का सिर्फ़ एक शब्द में साराँश निकल आया। वो साराँश निम्न प्रकार है – घण्टा।


7 comments:

Anonymous said...

haha ghanta indeed!

Pravesh Jha said...

maniye na maniye...jab miliyega toh autograph dena padega...ghazab ka lekhan shakti hai :-)

Unknown said...

pure post mein laga ki final wala dil tutne pe kuchh to gyan bantiyega..kuch to saransh hoga
lekin diya kya, 'Ghanta' !!
Well written, indeed. Especially, the first paragraph !!

Chandra said...

And this will not be last one. But, you did gain maturity through each one, didn't you? And you are far from baldness so, carry on:)

vC said...

Sir, mazaa aa gaya padh kar!!

Anonymous said...

Kaise ho?

Anonymous said...

Maybe we’ll meet again
And I’ll be right for you and you’ll be right for me
When you won’t be chaos to my thoughts, and I not poison to your heart.