आसमाँ का नीला रँग उतर सा चुका है
हर वो बादल गरजकर थक सा चुका है
रातों की चाँदनी स्याह हो चुकी है
ठण्डी हृदय की हर आह हो चुकी है
रँगों का वो भेदभाव नष्ट सा हुआ है
अवसादित श्याम रँग स्पष्ट सा हुआ है
चीत्कारता हृदय अब परास्त सा हुआ है
कब आओगे तुम, जीवन निरास्त सा हुआ है
तुम्हारा संदेश पढ़ने को आँखें पथरा चुकी हैं
एक स्पर्श भर को उँगलियाँ थर्रा चुकी हैं
सूखे होठों पर विरह बरस सी रही है
गले लगाने को बाँहें तरस सी रही हैं
हर वो छोटी बात बताने को व्याकुल सा मन है
तुम बिन हर सफ़लता इक निरर्थक सा क्षण है
अनायास ही ध्वनि तुम्हारी सुनी हो, लगता हरदम है
कब आओगे तुम, अब तो मृतप्राय संयम है
तुम भी कदाचित होगी थोड़ी तो व्यथित
नहीं, ये सिर्फ़ हृदय के विचार नहीं कल्पित
याद है मुझे, थोड़ा सा प्रेम तो तुमने भी किया है
प्रतीत न करवाओ ये सिर्फ़ मेरी मृगतृष्णा है
शायद आजीवन तुमसे फिर मुलाकात न हो
अमूर्त से मेरे प्रेम पर भले तुम्हारा हाथ न हो
सच कहूँ, मैं सजीव नहीं जब तुम साथ न हो
कब आओगे तुम, तब तक कहीं सब समाप्त न हो