“आज ही है। शाम को सात बजे। जाकर तमन्ना पूरी कर लेना।”
“तुम्हें कैसे पता बे?”
“अमा यार, कहते हैं तो सुना करो। गर्ल्स हौस्टल की गतिविधियों का थोड़ा-बहुत ज्ञान हम भी रखते हैं।”
“हाँ तुम बहुत्ते तीरंदाज़ हो, इसीलिए आज तक यूनिवर्सिटी में अकेले घूमते हो। भईया ई शहर है बम्बई। यहाँ हर आदमी कुछ न कुछ पा जाता है। और तुम साले ज्ञान के अलावा और कुछ न पा पाए!”
“बेटा थोड़ा संभाल के। जिसका डाँस देखने के लिए तीन दिन से आँख में गुलाबजल डाले पड़े हो वो 24 में से 28 घण्टे लाईब्रेरी में ही होती है। तुम्हारे जैसे चौपाटी पर ले जाकर प्रपोज करने वाले दिलफेंक लौण्डे उसकी लीग में नहीं हैं।”
“हाँ हाँ भईया तुम बटोरो भरपूर ज्ञान, और करो उसकी लीग की सोलो-स्वान मौडलिंग। एक्स्ट्रा मिर्च डाल कर चौपाटी की पाव-भाजी लड़कियों को कितना भाती है ये तुम नहीं समझोगे।”
“हाँ यूनिवर्सिटी से निकल कर तुम चौपाटी पर ही पाव-भाजी बेच लेना। हम अभी निकलते हैं।”
“कहाँ निकलते हैं भईया? पौने सात बजे एण्ट्री कौन कराएगा? पढ़े-लिक्खे लौण्डे ही तो काम आते हैं एण्ट्री पे!”
“नहा-वहाकर, सेंट लगाकर आना शाम को। देखते हैं।”
आज घड़ी जैसे चलने की बजाय रेंग रही थी। वह नहा चुका था, इस्त्री किए कपड़े पहने थे, और किसी सस्ती विदेशी इत्र की बोतल को कपड़ों पर उड़ेल चुका था। बालों में जैल, आँखों में गुलाबजल, और कैन्वस जूते। उसे मालूम था कि महज़ किसी तरह अन्य दर्शकों की भीड़ का हिस्सा बन जाना प्यार जतलाने के करीब भी नहीं है। पर उसे ये भी ग़ुमान था कि प्यार करने का मकसद बस प्यार जतला देना नहीं है, और शायद दूर-दूर से चाहने का लुत्फ़, पा लेने से ज़्यादा सुकूनगर है। इस तरह बड़ी-बड़ी शायराना बातें सोचकर दिल के अंदर मचती जिस्मानी हलचल को भी कबूलने से बचा जा सकता था, वरना अपना ही प्यार छोटा लगने लग जाए। कुल मिलाकर आज उसके लिए पूरा कलीना कैम्पस हसीन था, मिज़ाज रंगीन, और ज़िन्दगी गुलज़ार। बस थोड़ा इंतज़ार बचा था, जिसकी शायराना अंदाज़ में नुमाईश कुछ बेपरवाह लिखने वाले लोग शायद कर ही डालें। पर आज रहने दीजिए साहब, क़िस्सा अभी बाकी है।
कौलेजों में पढ़ने के बाद भी अगर महिला छात्रावासों के बारे में आपकी जानकारी मुख़्तसर हो, तो समझ लें जनाब कि आपने ज़िंदगी थोड़ी-बहुत जी तो ली, पर बड़े नहीं हो पाए। ये जानना बेहद ज़रूरी है कि इस तरह की इमारतों में आपको यहाँ-वहाँ लोहे की जालियाँ ज़्यादा दिखेंगी, वैसे कपड़े सूखते देखेंगे जो आपने सिर्फ़ फ़िल्मों में देखे हों, और खुशबू के नाम पर कोई गुलबदन हसीना की महक नहीं, बू-ए-डिटर्जेण्ट ही मिलेगी। आज की महफ़िल नीचे के कौमन रूम में जमनी थी। चारों ओर गेंदा के फूलों की माला से वातावरण को मोहक बनाने की साज़िश की गई थी, शायद इसलिए कि मुल्क के हर कौलेज की तरह यहाँ भी ‘मय’ और ‘साक़ी’ सरीखे सजेस्टिव लफ़्ज़ों पर पाबंदी थी। कमसकम फूल लगा देने भर से कोई लफंगा महफ़िल से रुख़्सत होने के बाद फ़ैज़ साहब वाली डींगे नहीं हाँक पाता, कि – “न गुल खिले हैं न उन से मिले न मय पी है, अजीब रंग में अब के बहार गुज़री है!” कमरे को सजाने वाले ने अक्ल खूब लगाई होगी: गुलों को पिरो कर चारों ओर लगा ही दिया गया है, “उनको” दूर से देख लेना जब टाईम आए तब, और मय वापस घर जाकर पी लेना। शायरी हाँकने का कोई मौका नहीं! कमरे में थोड़े गुब्बारे भी थे, जिनका मकसद शायद खुदा जानता हो, या शायद वो लोग जिनके पिछ्ली पार्टी के गुब्बारे फोड़े नहीं गए थे और यहीं खम्बों पर चिपके रह गए थे।
महफ़िल में शिरकत करने वाले कद्रदान दिल थामे एक-एक करके ऐसा चेहरा बनाए अंदर आ रहे थे जैसे एक-चालीस की विक्रोली वाली लास्ट लोकल पकड़ने आए हों; छूट गई तो बाद में किसी को मुँह न दिखा पाएँगे। अंदर आने वालों में ज़्यादातन इसी छात्रावास की छात्राएँ थीं, और कुछेक लुच्चे-लफाड़े लड़के, जिनकी पढ़ने लिखने-टाईप वालों से एण्ट्री करवाने भर के लिए जिगरी दोस्ती थी। दो हसीनाएँ (या फिर उसे लगा कि हसीनाएँ) माईक पकड़े, टखनों तक लम्बी स्कर्ट पहने (या फिर उसे लगा कि ये स्कर्ट ही है) खड़ी थीं। माहौल बन चुका था – दर्शक-दीर्घा की छात्राओं ने तशरीफ़ें चारों ओर सीढ़ियों पर टिका लीं थीं, और छात्र पीछे की तरफ़ दीवारों से सटकर खड़े हो लिए थे, शायद इसलिए कि कभी भी अगर ऐसा लगे कि “व्यू” ठीक नहीं है, तो तपाक से जगह बदलने की फ़्लेक्सिबिलिटी बनी रहे।
एक हवा सी चली। बयार-ए-नसीम। चारों ओर ऐसा सन्नाटा जैसे परवरदिगार ने हल्के से इशारा कर दिया हो कि सारी क़ायनात दो पल के लिए थम जाए और चमन हो जाए। आँखों के आगे ऐसा मंज़र कि उसे लगा बस इन दो पलों को अपने नसीब में पाकर वो खुद शाहकार-ए-खुदा हो गया हो! सामने था वो कमाल-ए-हुस्न कि पूरी महफ़िल में अगर कुछ सुनाई दे जाए तो सिर्फ़ धड़कनें। रंग-ओ-बू का वो सैलाब कि गेंदे की उन तमाम लड़ियों में पिरोया एक-एक फूल शर्मसार हो जाए। काले ख़ुशनुमा लिबास पर पीली चुन्नी ओढ़े आई थी वो। पैरों में घुंघरू जैसे नायाब सुख़न-वर, चाल जैसे किसी कू-ए-गुलिस्ताँ से इठलाता आया हो एक मोर। आँखों में सूरमा, कानों में सोने की चमकती बालियाँ, नागिन सी लहराती काली घनी ज़ुल्फ़ें। वक़्त कब का थम चुका था, और उसे लगा कि बस अब दिल का थमना बाकी है। ऐसी ख़ुशगवार बातें उसके ज़ेहन में उफ़ान ले रही थीं, तभी किसी ने पीछे से सीटी बजाई। पूरी महफ़िल तालियों से थर्रा उठी, और उसे लगा कि अब ख़्वाब से बाहर आ जाना अच्छा रहेगा; ये मंज़र एक्स्क्लूसिव बिल्कुल नहीं है, और इंसान को अपनी औकात नहीं भूलनी चाहिए।
आगे जो हुआ उसे वो बस ठिठककर देखता रह गया। लबों से छिटकती तबस्सुम की सरकशी, आँखों के इशारों की ख़लिश, और वो बेहतरीन अंदाज़-ए-बयाँ कि मोम बिन आग ही पानी हो जाए। इधर वो लहरों की तरह बहकती, उधर भीड़ बेताब हो मचलती। उसे लगा कि इस समंदर तक वो आ तो गया, पर अब डूब जाएगा। इन मदहोश हवाओं में उड़ पाने का ज़र्फ़ जिन परिंदों में है उनके नाम शायद लाईब्रेरी की उन किताबों की जिल्द पर लिखे होते हैं जिनकी सूरत इसने तो कभी नहीं देखी। इसी उधेड़बुन में था कि आवाज़ आई – “हैलो!” हसीनाएँ सभी से हैलो बोलती हैं ये तो उसने सुना था, पर उससे वो हैलो बोलेगी ये नहीं सुना था।
“और हीरो! हम तो तुम्हारी एण्ट्री करवा के निकल गए थे, पर सुना है बड़ा हाय-हैलो कर आए हो आज?”
“हाहा! हाँ! अच्छा ख़ैर, आज ओल्ड मौंक से काम नहीं चल पाएगा। कुछ अँग्रेज़ी पीओगे? एक-आध पैग लगा लेना मेरे साथ फिर चले जाना अपने लेनिन और कार्ल-मार्क्स को पढ़ने।”
“हाँ पी लेंगे। क्या कमाल करके आए हो वैसे डाँस प्रोग्राम से?”
“यार हैलो वगैरह हुआ और क्या। किसी बौयफ़्रेण्ड के साथ थी, कुछ अंग्रेज़ी में नाम था। इण्ट्रौड्यूस करवाया था; अब टेढ़ा नाम था याद नहीं आ रहा।”
“अच्छा कहाँ पीओगे?”
“वहीं। लाईब्रेरी के बाहर ऐज यूज़ुअल!”