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मोमबत्ती की रौशनी से नहायी खाने की मेज़ पर
तुम्हारे होने भर से सबकुछ जीवन्त सा था
धड़कनों की टाप बढ़ाता रात का वो किस्सा
कुछेक क्षणों में सिमटते हुए अनन्त सा था
बाती छोड़ती हुई सी मोमबत्ती की बेशर्म लौ
तुम्हारी आँखों में ही टिमटिमाती थी
गालों पर बस हल्की सी लालिमा जताने को
रौशनी स्वयँ सकुचाती थी
पानी की खुशकिस्मत सी वो पतली परत
तुम्हारे होठों पर ही ठहर जाती थी
बेशर्म लौ इठलाती सी रहती उनपर
बाती जल-जल कर बस पछताती थी
कानों में मचलते हुये दो छोटे झुमके
अपनी अनवरत सी तड़प की कहानी बतलाते थे
बीच-बीच में छिटकती बेशर्म लौ से लड़ने को
निरीह से इधर-उधर कसमसाते थे
शीशे के गिलास में छलकता सजीव सा पानी
बेशर्म लौ की लालिमा में शर्माता था
छोटे घूँटों के बहाने होठों से लगकर शीशा
हर बार बस चकनाचूर हो कर रह जाता था
शरारती आँखों पर सवार दो काली भौँहें ही
बला सी तनकर बेशर्म लौ को ललकार पाईं
सब कुछ देख मुस्कुराती स्पष्ट सी तुम्हारी रूपरेखा
जाने कब हृदय को किस नगर छोड़ आईं!
Monday, May 05, 2008
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3 comments:
ykosdsman sounds like some one is seriously in love........pehle to main bas shayar tha aashiq banaya aapne.........
Ah, you're under the wrong impression man! It's just a 'moment' captured at a place where I was fortunately present. Nothing to do personally with me! :)
Here comes the most Modest writer ..I;m talking about KUMAR Vivek
भाई ....साहब मुझे नहीं पता ...IIMK मैं कितने लोग तुम्हारी बात समझने की कोशिश भी कर पाते हैं .....बहुत ही खूबसूरती से एक लम्हे को लम्बा कर दिया तुमने....
सबसे मुश्किल काम ही यही होता है ....
इतना अच्छा लिखने लिए बहुत बहुत साधुवाद ....
सादर
दिव्य प्रकाश
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