राजधानी दिल्ली में हमारा आगमन जीवन के उस पड़ाव पर हुआ, जिसकी व्याख्या "अनिश्चितकाल" नामक संज्ञा देकर मोटे तौर पर की जा सकती है। और मोटे तौर पर अगर कुछ भी सिद्ध हो सकता हो, तो हमारे देश की प्राचीन परम्परानुसार उसकी वैधता, बिना हो-हल्ला मचाये, किसी भी वैज्ञानिक प्रयोग से अधिक मानी जानी चाहिये। मसलन ‒ भगवान एक है और उसके रूप अनेक, कर्म के हिसाब से जीवनोपरांत स्वर्ग और नरक मिलते हैं, सबसे बड़ा रुपइया ‒ ये सब कुछ मोटे तौर पर सिद्ध किये जा सकने वाले भाववाचक सिद्धांत हैं, और इसलिये इनका प्रयोग किसी भी बुद्धिजीवी परिचर्चा में बेहिचक करना पूर्णतः वैध है।
ख़ैर। हमारे जीवन का अनिश्चित पड़ाव इसलिये, क्यूँकि विशिष्ट रूप से इस पड़ाव पर अतीत, भविष्य, और उमर ‒ तीनों अनिश्चित होते हैं। जिस प्रकार उच्चतर शिक्षा के कुपोषण के शिकार किसी भी दर्दनाक अतीत को अँग्रेज़ी व्याकरण के क्लिष्ट शब्दों से चेपकर गरिमामय और रंगीन बनाया जा सकता है, उसी प्रकार किसी सड़ियल कोने में झख मार रहे वर्तमान पर चमकीला लेप लगा कर सुनहरे भविष्य का प्रचार आराम से किया जा सकता है। और इन दोनों अनिश्चितताओं के बीच उमर भी ५-१० साल इधर-उधर खिसककर, थोड़ी-बहुत अनिश्चितता और फ़ेसबुक पर लगे दार्शनिक चित्रों के बनिस्पत मोटे तौर पर एक छोटी सँख्या पर आकर अपरिहार्य कारणों से स्थगित हो जाती है।
इन सबके बीच, अपने अनिश्चितवें जन्मदिवस पर खा-पीकर डकार लेने के कुछ ही दिनों बाद हमने परदादाओं के ज़माने की कहावत "नौकरी हो तो सरकारी, नहीं तो बेचो तरकारी" को चरितार्थ करने का बीड़ा उठाया, और इसी उद्देश्य से निज़ामों की सुशिष्ट नगरी हैदराबाद छोड़कर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की ओर निकल पड़े। यहाँ की अक्खड़ वास्तविकता से हमारा आमना-सामना सबसे पहले गुड़गाँव में तब हुआ, जब हमने ट्रांसपोर्ट की ट्रकों पर भारतीय राजमार्गों से जूझकर लायी गयी अपनी चरचकिया गाड़ी को चलाकर घर लाने का प्रयास किया।
स्पष्ट है कि गुरू द्रोणाचार्य ने जब यहाँ गुरू-ग्राम (भूतपूर्व गुड़गाँव) की स्थापना की, तो जीवन-यापन के कुछ मूलभूत सिद्धांत भी छोड़े, जैसे अकूट प्रतिस्पर्धा, अनुशासन, शिष्टाचार, इत्यादि। इस क्षेत्र की प्रतिस्पर्धात्मक संस्कृति का थोड़ा-बहुत बोध वाहन चालन में होने वाली वर्चस्व की लड़ाई से किया जा सकता है। कभी पीछे न हटने की इस परम्परा के बीच शिष्टाचार के नाते प्रयोग किये जाने वाले माँओं और बहनों संबंधित प्रतीकात्मक शब्द अनुशासन बनाये रखने में सहायक हैं। धड़ल्ले से हॉर्न बजाकर चिल्ल-पौं से सुसज्जित किये गये इस माहौल में एक अलग ही भारत की पहचान छुपी है जिसका वर्णन दर्शनशास्त्र की किसी थ्योरी से शायद मोटे तौर पर किया जा सके।
धूल मिट्टी के रोमांचक कोहरे और शरद ऋतु के तपते सूरज के बीच वाहन चालन में हमें भूमि से जुड़े होने की सुखद अनुभूति प्राप्त हुई। इसी बीच सड़क की दाहिनी ओर निश्चिंतता से खड़ी, सम्भवतः इसी सुख को मध्यरात्रि के अलाव की तरह सेंकती हुई एक गाड़ी का पिछला दरवाज़ा जम्हाई की तरह खुला, और हमारे पीछे देखने के प्रयोग में आने वाले शीशे पर प्राणघातक तमाचा जड़ गया। दरवाज़े से एक अधेड़ उम्र की महिला अवतरित हुईं, और सामने से एक श्रीमान। हमारे पास आकर गम्भीर मुद्रा में बोले ‒ "सौरी, हम-लोग यहीं रहते हैं और रोज़ ही इस टाईम पर आते हैं। जॅनरली इधर कोई गाड़ी नहीं आती, इसलिये पीछे देखा नहीं।" विदित है कि यहाँ के प्रतिस्पर्धात्मक सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में इस प्रकार का मनुहारी संवाद केवल अतिथि सत्कार के लिये सुरक्षित है, और इसलिये मोटे तौर पर इस घटना को स्थानीय निवासियों की सहिष्णुता का परिचायक माना जा सकता है।
सेक्टर चालीस नामक इस मुहल्ले में हमारा डेरा श्री एवँ श्रीमति सिंह के घर जमा। श्री सिंह ‒ बड़े ही सज्जन आदमी ‒ "कबीरा खड़ा बाजार में सबकी माँगे खैर, ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर।" श्रीमति सिंह ‒ राष्ट्रीय दैनिकों में आने वाले "सुंदर-सुशील-शिक्षित-गृहकार्यों-में-दक्ष" सरीखे विज्ञापनों की साक्षात् अभिव्यक्त्ति। इस परिवार के निर्बाध प्रेम के बीच सहजता से भाँति-भाँति के व्यँजन तोड़ते हुए लगभग दो सप्ताहों में हमने मुहल्ले की गतिविधियों को आत्मसात करने का प्रयास किया। जैसे मुहल्ले की सुदृढ़ संचार प्रणाली ‒ जिसके द्वारा अगल-बगल लगी इमारतों के बरामदों से श्रीमतियों द्वारा सूचनाओं, गालियों, एवँ चुगलियों का, तथा कभी-कभी नवजात शिशुओं का आदान-प्रदान होता है, मुहल्ले में सुबह-सुबह आने वाला गौ-ग्रास रथ ‒ जिसको एक रुपए और एक रोटी देकर छोटे-मोटे पापों से छुटकारा प्राप्त किया जा सकता है, रात्रि के दूसरे-तीसरे पहर में सक्रिय होने वाले लावारिस कुत्ते ‒ जिनके होने भर से मुहल्ले की परिसीमा अंतर्राष्ट्रीय सीमारेखाओं की तरह सुरक्षित रहती है, तथा मुहल्ले के पास स्थित सेक्टर चालीस बाज़ार ‒ जिसके ईर्द-गिर्द गोधूली बेला में मँडराकर इस क्षेत्र की सांस्कृतिक विविधता और भौगोलिक समृद्धि का अवलोकन किया जा सकता है।
इन्हीं दो सप्ताहों के अंतराल में हमने निजी प्रयोग हेतु एक घर ढूँढने का भी बीड़ा उठाया और इंटरनॅट पर बहुतायत में उपलब्ध "फ़्लैटमेट रिक्वायर्ड" सरीखे विज्ञापनों से दिग्भ्रमित हुए बिना एक "वन प्लस वन" परिसर किराए पर लेने का निश्चय किया।
इस क्रम में हमारा प्रथम पड़ाव था जैन साहब का कार्यालय। जैन साहब ‒ हमारे कॉलेज के दिनों के घनिष्ठ मित्र और आजकल दिल्ली में उद्यमी; लगे हाथों दक्षिणी दिल्ली में ज़मीन-जायदाद के क्रय-विक्रय और पट्टेदारी में भी दिलचस्पी। जैन साहब ने हमारे मामले में स्वयँ रूचि ली, और तपाक से अपने एक कर्मचारी को हमारा केस सौंपा। कर्मचारी ने अपनी गाड़ी की चाभी को उँगलियों पर घुमाया, आत्मविश्वास का चूरन मुँह में दबाया, पूरी तन्मयता झलकाते हुए मामले की जाँच-पड़ताल की जिससे ऐसा प्रतीत हुआ कि हमारी आवश्यकताओं का एक सचित्र ख़ाका उनके मानस पटल पर गाढ़ी स्याही से छप गया हो, और अंत में आशावादी स्वर में बोले ‒ "ओ कोई गल नई जी, हो जाएगा! अभी आपको ले चलते हैं विज़िट पे - एक तो यहीं ग्रेटर कैलाश में है प्रौपर्टी, सिंगल रूम विथ स्मौल बाथरूम ऐंड किचन, बैड-ऐलसीड्डी-टीवी वगैरह भी हैं, फ़ुल्ली फ़र्निश्ड। एकदम फिट आपके लिए, अकेले ही रहना है आपको तो। इसके अलावा दो और हैं लाजपत नगर में, मेन मार्केट, आपका ऑफ़िस तो सीपी में है ना, बिलकुल बगल में।" इस आश्वासन के साथ हमारा मनोबल बढ़ाकर अपनी गाड़ी की चाभी को उँगलियों से निकालकर गाड़ी में घुमाया, और किसी अंतर्मुखी आनंद द्वारा बाहर की ओर धकेली गई विशुद्ध मुस्कान को मुखमण्डल पर धारण करते हुए बोले ‒ "चलिये!"
ग्रेटर कैलाश का मकान दरअसल तीसरे तल्ले पर बना एक कमरा था, जिसपर लोहे की गोल सीढ़ियों द्वारा हाथ-पैर समेटते हुए चढ़कर पहुँचा जा सकता था। कमरे का विस्तार इस इलाके की किसी भी छोले-कुलचे की दुकान की तरह सीमित था, परंतु कमरे के दो कोने, छोले-कुलचे की दुकान के कोनों की तरह ही सामरिक महत्व रखते थे, और अत्यंत उपयोगी थे। एक कोने पर लकड़ी की एक मेज़ थी, जो कक्षा से बाहर निकाले गए किसी छात्र की तरह उकड़ू बैठाकर छोड़ दी गई थी। इसी मेज़ की सतह पर दाहिने कोने में एक गड्ढा बनाकर स्टील का एक बेसिन जड़ दिया गया था जो विवशता से मुँह फाड़े कमरे की छत को ताक रहा था। कमरे के दूसरे कोने पर एल्यूमीनियम की पट्टियों और प्लाईवुड वाले तख़्तों से एक शौचालय निर्मित था, जिसे संभवतः हवादार रखने के लिये ऊपर की ओर खुला छोड़ा गया था। इस पूरी संरचना में किसी आधुनिक वास्तुशिल्पी का चातुर्य निहित था, और शायद उसी चातुर्य से प्रभावित होकर, उसे स्पष्ट करने की मंशा से हमारे साथ वाले श्रीमान हमारी ओर मुख़ातिब होकर बोले ‒ "है ना फ़र्स्ट क्लास, एक आदमी के लिए? और चूँकि आप जैन साहब को जानते हैं, इसलिए आपके लिए हमने मात्र अठारह हज़ार रुपए में बात भी कर ली है! कहिये।" हम सकुचाए ‒ किराया, मकान की परिस्थिति पर विचार किये बिना, हमारे निर्धारित बजट से बाहर था। गले तक उभरती पीड़ा को थूक से निगलकर हमने टूटे शब्दों में कहा ‒ "जी वो… थोड़ा छोटा है। एक बार लाजपत नगर वाला भी देख लें?"
लाजपत नगर का पहला मकान लगभग पचपन वर्षीय एक पंजाबी सज्जन का था, जो प्रत्येक वर्ष लगभग आधा समय "अब्रौड" बिताते थे। मकान के नीचे चाईनीज़ बल्बों से जगमगाती दुकानें किराये पर लगा दी गयीं थीं, जो अगल बगल की दुकानों से केवल व्यावसायिक ही नहीं, अपितु सामने की सड़क पर सामान एवँ गाड़ियाँ रखने की भी प्रतिस्पर्धा करतीं थीं। ऊपर सरदारजी स्वयँ रहते थे, तथा छत पर दो कमरे, अलग-अलग किरायेदारों के लिये निर्मित थे। कमरा दिखने में प्रागैतिहासिक सा था, परंतु चकाचौंध वाले बाज़ार के बीचोबीच होने से आधुनिक युग में बेची जाने वाली "रेट्रो" चीज़ों की तरह एक प्रकार से महत्वपूर्ण था। कमरे के मध्य में लगभग दस इंच ऊँची, आठ-बटा-छः की लोहे की सफ़ेद पलँग रखी थी जो मुग़ल-ए-आज़म के नये रँगीन प्रिण्ट के कुछ दृश्यों की याद दिलाती थी। पलँग ने कमरे के एक बड़े हिस्से पर अतिक्रमण कर रखा था, और बचे हिस्सों में एक छोटा सा रसोईघर, और एक गुसलखाना अटाया गया था। कमरा दिखाने के बाद सरदारजी ने हमें अपने घर पर बिठाया, और मित्रवत शैली में बोले ‒ "और, क्या करते हो?" हमने भी मुस्कुराते हुए उत्तर दिया ‒ "जी दिल्ली में नया आया हूँ, अभी तक नौकरी शुरू नहीं की। इससे पहले हैदराबाद में था।" इसपर तपाक से स्वयँ को सम्भवतः कोई जुझारु हास्य अभिनेता समझते हुए बोले ‒ "तो हैदराबाद छोड़कर यहाँ आ गये? और गर्लफ़्रेण्ड?" हम सकुचाये, और इस वार्तालाप में रूचि न होने की सी मुद्रा बनाकर बोले ‒ "जी कभी थी ही नहीं।" सरदारजी नहीं माने, एवँ "हमारे ज़माने में…" से शुरू करते हुये अतीत की झलक दिखाकर संवाद की भूमिका बाँधी। तत्पश्चात असली मुद्दे पर आए और उसी शैली में बोले ‒ "कोई दिक्कत नहीं होगी यहाँ, मैं तो वैसे भी छः महीने यहाँ रहता नहीं। गाड़ी वगैरह लगानी हो तो नीचे पूरी सड़क आपकी ही है, आठ बजे दुकानें बंद होते ही ये जितनी भीड़ दिख रही है, सब खाली हो जायेगी, जहाँ मर्ज़ी लगाओ। ऊपर कमरे के बाहर भी काफ़ी जगह है, हवा खाओ जब मन आए! क्या?" हमने गम्भीर मुद्रा बनाकर निर्णय टालने के प्रयास से कहा ‒ "जी सोचकर बताता हूँ एक-दो दिन में!" इसपर उन्होंने कहा ‒ "क्या सोचना है?" हम निरुत्तर सी मुद्रा में उन्हें देखते हुए बोले ‒ "जी?" बिना हतोत्साहित हुए उन्होंने दोहराया ‒ "हाँ मतलब क्या सोचने वाले हो?" हमें उलझन हुई - सवाल गहरा था - क्या सोचने वाले हो। हम अब भी निरुत्तर थे और मरियल कछुए की तरह सिर्फ़ ताक रहे थे। हमारी वेदना समझते हुए, सम्भवतः अपने कई वर्षों के अनुभव को निचोड़ते हुए वे फिर हास्य-मिश्रित शब्दों में बोले ‒ "बेटा, ज़्यादा सोचना नहीं चाहिये, कर देना चाहिये। जैसे हम सरदार - सोचते नहीं बस कर देते हैं। हमारे मनमोहन सिंह को देख लो, पहले कर देता है, सोचता बाद में है।" वार्तालाप पुनः किसी और दिशा में जा रहा था, और हमने परिस्थिति भाँपते हुए अपने साथ आये श्रीमान की ओर आशापूर्वक नेत्रों से देखा। श्रीमान चलने को अग्रसर तो हुए, परंतु तब तक चर्चा शहर में ज़मीन-जायदाद की वर्तमान अर्थव्यवस्था पर आ चुकी थी, और हम झेंपते हुए बैठे रहे। बाहर आकर श्रीमान ने हमसे कहा ‒ "थोड़े मज़ाकिया हैं अँकल, ख़ैर ‒ दूसरा घर भी देख लें? यहीं पास में है, और अँकल का ही है।"
दूसरा मकान भी कुछ विशेष उत्साहवर्धक नहीं था, तथा इस इलाके की बाकी इमारतों की तरह संकरी सड़कों के बीच बीमारू सी मुँह बाये खड़ी एक इमारत के अँदर साँसें गिन रहा था। हम निराश होकर बाहर आये, तथा श्रीमान से बोले ‒ "ऐसा करते हैं, एक बार मयूर विहार वाले इलाके में भी घूम लेते हैं।" श्रीमान ने मयूर विहार का नाम सुनकर घृणा और तिरस्कार की लगभग बराबर मात्रा में मिश्रित दृष्टि से हमें देखा, थोड़ा खँखारे, फिर एक क्षण कुछ सोचा, शायद हमारे नये होने का आँकड़ा अपने समीकरण में बिठाया, और परिणामस्वरूप उभरकर आयी सहानुभूति के वशीभूत होकर बोले ‒ "मयूर विहार वगैरह बेकार है, नौएडा वौएडा में पड़ता है, ऑलमोस्ट दिल्ली से बाहर है। क्या करोगे वहाँ जाकर? देखो, रहना है, तो साउथ डैल्ही में ही रहो - द ऐड्रेस। दिल्ली में यही एक हैप्पेनिंग जगह है, और कहीं का सोचो भी मत! पर मन है, तो देख आओ - अपनी तसल्ली कर लो, फिर हम तो यहाँ हैं ही।"
मयूर विहार का इलाका दिल्ली के पूर्वी क्षेत्र में, यमुना के उस पार पड़ता है। दिल्ली के अनगिनत कारखानों द्वारा उगले गए लाखों टन कचड़े को धकेल कर ताजमहल एवँ उसके उपरांत पहुँचाने में यमुना के इस हिस्से का अमूल्य योगदान है। "सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय" को चरितार्थ करती इस प्राकृतिक प्रक्रिया द्वारा निरर्थक नदी को नाले में परिवर्तित करने से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की स्वच्छता एवँ निर्मलता बनी रहती है।
मयूर विहार में पहला मकान हमने श्रीमति सिंह की अनुशंसा का सहारा लेकर जुगाड़ा। श्रीमति सिंह ने हमारी सिफ़ारिश अपने फूफा श्री सिंह से की, जिन्होंने हमारा केस "प्रौपर्टी डीलर" श्री चौहान को सौंपा, जिन्होंने हमें श्री सच्चर के पास भेजा, जो हमें डीoडीoएo द्वारा निर्मित एक मकान का स्वामित्व रखने वाले एक गुजराती परिवार के पास लेकर गए। मकान के दूसरे तल्ले पर यह परिवार स्वयँ रहता था, तथा तीसरे तल्ले पर दो कमरों का एक खण्ड किराए हेतु था। ऊपर चढ़ने के लिये निर्मित सीढ़ियाँ दूसरे तल्ले के दरवाज़े के ठीक सामने से जाती थीं, तथा घर की औरतों एवँ बच्चों को हर आगंतुक के ऊपर-नीचे जाने का सिलसिलेवार ब्यौरा मुफ़्त में मनोरंजन स्वरूप प्रदान करती थीं। श्री सच्चर ने इस परिवार के प्रतिनिधि को हमारा परिचय अत्यंत भाव-विह्वल कर देने वाले तरीके से दिया ‒ "बहुत पढ़ा-लिखा लड़का है। चौहान साहब ने भेजा है, और आप समझ लो कि इसकी पूरी गारण्टी मेरी। आजकल इस तरह आराम से सीधे बैचलर्स मिलते ही कहाँ हैं। एजुकेटेड, अच्छी-खासी जॉब, कोई इधर-उधर का झमेला नहीं।" फिर अचानक से कुछ स्मरण किया, और हमारी ओर मुड़कर बोले ‒ "बेटा इनकी एक ही शर्त है, नॉन वेज खाने वाले नहीं होने चहिए।" प्रतिनिधि ने भी इस बिंदु पर विशेष प्रभाव डालने की दृष्टि से दो शब्द जोड़े ‒ "हाँ जी, आप नॉन वेज वगैरह तो नहीं खाते हैं?" हमने ना में सर हिलाया, और इसके बाद अगल-बगल ताक-झाँक करके इस मुहल्ले की गतिविधियों का जायज़ा लिया। अंत में और एक-दो मकान देखने का विचार करते हुए सच्चर साहब से कहा ‒ "अँकल एक-दो दिन में डिसाइड करके आपको कॉल करता हूँ।"
तत्पश्चात कुछ और निराशाओं तथा पूर्वी दिल्ली के अलग अलग इलाकों के दलालों को निर्भयता से झेलने के बाद हमने अंततः बिना लिफ़्ट की एक इमारत में चौथे तल्ले का एक परिसर लेना सुनिश्चित किया, तथा अपने गृह-अनुसंधान यज्ञ का समापन किया। सड़क के उस पार एक छोटे से बाज़ार में मिलने वाले पनीर टिक्के, इमारत के बगल लगे एक विस्तृत उद्यान में प्रातःकाल टीवी पर मशहूर बाबाओं द्वारा सिखाई गई क्रियाएँ करते वृद्धजन, बिना पालतू कुत्तों को साथ चिपकाये घूमने वाले लोग, तथा "बनाना शेक" में बिन माँगे मस्ती में एक चम्मच आईसक्रीम डालने वाले दुकानदारों के बीच यह आवास हमारी "दिल्लीवासी" बनने की अनिश्चित प्रक्रिया को मोटे तौर पर प्रोत्साहित करता है।